Thursday, October 24, 2019

के. आसिफ की याद में हुआ चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, फिल्मी हस्तियां, पूर्व बागी सरदार हुए शामिल, वक्ताओं ने कहा ‘चंबल वैली में खुले महान फिल्मकार के नाम पर फिल्म स्कूल’

मुगल-ए-आज़म’ जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशक और प्रसिद्ध फिल्मकार के. आसिफ के नाम पर अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव हुआ. फिल्म महोत्सव में दिग्गज फिल्मी हस्तियांसाहित्यकार,फोटोग्राफर्स के साथ पान सिंह तोमर के सगे भतीजे बागी सरदारबिग बॉस फेम पूर्व दस्यु सुंदरी भी शामिल हुई हैं. इटावा में आयोजित इस तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भारत सहित नौ देशों की चुनिंदा 19 फ़िल्में प्रदर्शित की गईं. बता दें कि इटावा के. आसिफ का जन्मस्थान भी है. के. आसिफजिनकी  लगन और जुनून की बदौलत मुगल-ए-आज़म’ जैसा शाहकार हिंदी सिनेमा में संभव हुआ. अपने ही जन्मस्थान में भुला दिये गए. यह फिल्म फेस्टिवल के. आसिफ को याद करने की सार्थक कोशिश थी.

उद्घाटन समारोह सत्र में के. आसिफ की मुगल-ए-आजम के सफरनामे पर वक्ताओं ने चर्चा की. इसी दौरान युवा फिल्म निर्देशक धर्मेंद्र उपाध्याय की डॉक्युमेंट्री फिल्म चंबल इन बॉलीवुड का प्रदर्शन हुआ. इस डॉक्युमेंट्री फिल्म में  हिंदी सिनेमा और तीन राज्यों में स्थित चंबल घाटी के फिल्म लैण्ड को दर्शाती तस्वीर उभर कर सामने आती है. फिल्म फेस्टिवल में दुनिया की 150 भाषाओं में गजल गाने वाले डॉ. गजल श्रीनिवास ने चंबल गीत गाकर सुनाया. इस ऐतिहासिक गीत को पचनद घाटी के सरोकारी वयोवृद्ध कवि विजय सिंह पाल ने लिखा है. इस दौरान चंबल गीत के रचियता को सम्मानित किया गया. दुनिया भर में होने वाले फिल्म फेस्टिवलों की श्रृंखला में के. आसिफ चंबल इन्टनेशल फिल्म फेस्टिवल इस बात के लिए भी याद किया जाएगा कि इस उत्सव का भी अपना गीत है. इस दौरान वक्ताओं ने कहा कि चंबल गीत ओज का संगम है. उसके कथ्य में चंबल की भावभूमि है तो इतिहास और संस्कृति की झलक भी. गीत में वाद्ययंत्रों के अपूर्व संयोजन से से, चंबल की धारा का कलकल निनाद और उसके कूल-कछारों में पंछियों की चहचहाहट का जो प्रभाव उतपन्न किया गया है वह गीत को और भी जीवन्त बनाता है.

इस दौरान वाइल्ड फोटोग्राफर राजीव तोमर, प्रसिद्ध दस्तावेजी फिल्म निर्माता शाह आलम और वरिष्ठ पत्रकार ज्योति लवनियां द्वारा कैद की गई तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी जो चंबल के विभिन्न आयामों को समझने में मददगार रही. स्थानीय तमाम स्कूलों के छात्र-छात्राओं के सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने मन मोहा, तो वही स्थानीय कलाकारों, फिल्मकारों को मंच देकर उनका उत्साहवर्धन किया गया. तीन दिवसीय सिनेमा उत्सव कार्यक्रम में प्रसिद्ध फिल्मकार मोहन दास, सतेन्द्र त्रिवेदी, फिल्म अभिनेता रफी खान, अजय महेन्द्रू, रवि पाण्डेय, आजतक के फिल्म संपादक अनुज शुक्ला, पूर्व बागी सरगना बलवंत सिंह तोमर, पूर्व दस्यु सुंदरी व अभिनेत्री सीमा परिहार, बागी हरि सिंह पवार, मुन्ना सिंह मिर्धा, सूफी गजल गायक रोहित हितेश्वर, राजभाषा अधिकारी लक्ष्मन सिंह देव आदि ने शिरकत की.

फिल्म फेस्टिवल के आयोजक शाह आलम ने कहा कि मशहूर बॉलीवुड फिल्म डायरेक्टर के आसिफ ने अपनी फिल्में बड़ी ही शिद्दत और जुनून के साथ किया. वे दुनिया भर में नजीर बन गए. डा. गजल श्रीनिवास और मोहन दास ने के आसिफ पर शोध कर दस्तावेजी फिल्म बनाने और उनके नाम पर चंबल घाटी में फिल्म स्कूल खोलकर चंबल घाटी के युवाओं को तराशने का मुद्दा उठाया गया. जिससे फिल्मलैण्ड की वास्तविक छवि दुनियां के सामने नुमाया हो सके. पुरातात्विक सभ्यता की खान चंबल के अनगिनत किस्से सामने आ सकें.  के. आसिफ चंबल इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में  दिनेश शाक्य, इं. राज त्रिपाठी, रंजीत सिंह, डा. कमल कुशवाहा, कुमार मनोज, इं. योगेश यादव, गौतम शाक्य, रौली यादव, अजय कुमार, रविन्द्र चौहान की मजबूत टीम की बदौलत संपन्न हुआ.

ये फिल्में की गई प्रदर्शित
सबसे पहले के. आसिफ की मुगल-ए-आजमपान सिंह तोमरचम्बल इन बॉलीवुडकैसे...?, संध्याकैफ़े ईरानी चायमीडियम रेयर (इटली) वरम (अमेरिका)यक्षी (दुबई)लिटिल आईज़ (ऑस्ट्रेलिया), मृगतृष्णा (नेपाल)द सीक्रेट लाइफ ऑफ बैलून्स (लंदन)विथ माय ओन टू हैंड्स (पैरिस)काउंटर (शिकागो)मेहरम (मुंबई) और रेपरक्युशन (ईरान) फ़िल्में दिखाई गईं.

एक जुनून का नाम है के आसिफः 
देश की सबसे ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम के रिलीज होने के बाद सिने जगत मशहूर हुए फिल्मकार के. आसिफ ने इटावा की धरती पर जन्म लिया था। उनका बचपन भले ही मुफलिसी में बीता लेकिन सपने उन्होंने सदैव बड़े ही देखे। इसके तहत बॉलीबुड में पहुंचकर बेहतरीन तीन फिल्में बनाकर अपने हुनर का लोहा सभी से मनवा लिया। यह फिल्म वर्तमान दौर के दर्शकों को बार बार अपनी तरफ खींचती है। शहर के मोहल्ला कटरा पुर्दल खां में स्थित महफूज अली के घर में उनकी यादें अभी जिंदा हैंइस घर में के आसिफ के मामा असगरी आजादी किराए पर रहा करते थे। उनके मामा की पशु अस्पताल में डॉक्टर के रूप में यहां तैनाती हुई थी। उसी दौरान उनकी बहन लाहौर से आकर अपने भाई की सरपरस्ती में रहने लगी थी। उन्होंने 14 जून 1922 को एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम उस समय कमरूद्दीन रखा गया जो वॉलीबुड पहुंचकर के. आसिफ के नाम से मशहूर हुआ। बताते हैं कि उनका बचपन मुफलिसी में ही बीता लेकिन शिक्षा के प्रति सजग थे। इसके तहत फूल बेंचने के साथ इस्लामियां इंटर कालेज से जुड़े मदरसा में शिक्षा ग्रहण की। इस दौरान वे टेलरिंग का कार्य  करने के लिए वे मुंबई में फिल्मी दुनियां में पहुंच गए। 1941 में उनकी फूल फिल्म रिलीज हुई जो उस समय की सबसे बड़ी फिल्म मानी गईइसके पश्चात 1951 में उनकी हलचल फिल्म ने समूचे देश में हलचल मचाई। इसके पश्चात 1960 में मुगल-ए-आजम रिलीज हुई तो इस फिल्म ने फिल्म जगत में तहलका मचा दिया। फिल्म जगत की सबसे बेहतरीन फिल्मों में इसका नाम शिलालेख में दर्ज हैं। इस फिल्म के निर्माण में 17 साल का समय बीता थाइसी के साथ हर सीन को जीवंत करने के लिए पैसा पानी की भांति बहाया गया था। के. आसिफ का निधन मार्च 1971 को भले ही मुंबई में हो गया हो लेकिन उनकी यादें यहां की धरती से अभी जुड़ी हुई हैं। हालांकि जिस किराये के घर में वे पैदा हुए थे आज वहां मीट की दुकान है. और इस्लामियां इंटर कालेज से उनके नाम पर लगा बोर्ड अब हटा दिया गया है। के. आसिफ चंबल इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में शामिल होने आये वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अनुज शुक्ला ने कहा कि इसी जमीं से दो – दो मुख्यमंत्री बने लेकिन यहां की गौरवशाली थाती पर कान नही दिया।

तिग्मांशु ने दिया धोखाः बागी बलवंता
पहले ही दिन से पान सिंह तोमर के साथ साये की तरह रहने वाले सगे भतीजे बलवंत सिंह तोमर ने कहा कि 13 घंटे तक चले लंबे एनकाउंटर में कक्का की गैंग के कई लोग मारे गए थे. इस मुठभेड़ में मेरे पिता की भी मौत हो गई थी. किसी तरह बच निकलने वाले बलवंत पानसिंह के बाद करीब ढाई साल तक चंबल के बीहड़ों में अपने नाम से गैंग चलाते रहे. बाद में उन्होंने सीएम के सामने समर्पण कर दिया।बलवंत ने जोर देते हुए कहा कि मैंने फिल्म की कहानी से लेकर शूटिंग तक में मदद की लेकिनमुझे 40 लाख तय रुपये नहीं दिए गए. तिग्मांशु ने धोखा दिया. अब मैं पैर से लाचार हूं नहीं तो तिग्मांशु को मुंबई जाकर सबक सिखाता. बलवंत का दावा है कि तिग्मांशु की फिल्म की कहानी के तमाम इनपुट उन्होंने ही दिए. 'चंबल में बागी रहते हैंजैसे फिल्म के कई मशहूर संवादों के पीछे भी वह थे. वे बताते है किं संजय चौहान की रिश्तेदारी उनके नजदीक ही है. फिल्म बनाने से पहले तिग्मांशु धूलियासंजय और इरफान को लेकर उनके पास आए थे. बोले आप इंटरव्यू दे दो. तो हम फिल्म बना दें. उनकी कहानी दे दो. हमने कहाकहानी तो दे देंगेलेकिन उसकी कीमत कौन देगा हमें. उन्होंने कहाहम देंगे. तो हमने एग्रीमेंट नहीं कराया.मैंने उन्हें कहानी बताई. बाद में जब इन्होंने शूटिंग शुरू की तो तीन महीने तक राजस्थान में इनके साथ हम चंबल घाटी में रहे. हम नहीं होते तो इस पूरी यूनिट का अपहरण हो जाता. चंबल की गैंग उठा ले जाती इन्हें. अकेले हमने उन्हें (डकैतों को) समझाया कि मेरे ऊपर फिल्म बन रही है.

परमिट लाइन’ पर बनेगी फिल्मः डा. लक्ष्मण सिंह देव
देश विदेश में हजारों किलोमीटर की दूरी बाइक से तय करने वाले डा. देव ने फिल्म फेस्टिवल के दौरान कहा कि परमिट लाइन के अवशेषों को खोजकर उस पर एक फिल्म बनाउंगा। दरअसल आजादी से पहले हिंदुस्तान के नमक का खासा महत्व थाइसीलिए इसकी तस्करी भी बडे पैमाने पर की जाती थी। नतीजन नमक की तस्करी को लेकर के लिए अंग्रेज सरकार ने पेशावर से उडीसा तक इनलैंड कस्टम लाइन का निर्माण किया गया था। 1803 से शुरू हुई इस लाइन का निर्माण पूरी तरह से 1843 मे बन कर पूरा हुआ। कटीली झाडियों और पेड़ों से निर्मित यह लाइन 12 फुट ऊंची और इतनी ही चौड़ी हुआ करती थी। जो कि करीब2200 किलोमीटर की लंबी दूरी तय करती थी। यह परमिट लाइन दस्यु गिरोहों के प्रभाव वाले चंबल इलाके से भी गुजरी थी। उस दौर में इसे चीन की दीवार के समकक्ष माना जाता था।यह एक वनस्पति का या बाटनिकल बैरियर का काम करती थी जैसे चीन की दीवार है। दस फुट ऊंची और दस फुट चौड़ी झाड़ियों की इस लाइन को कोई भी इंसान तो दूर कोई भी हाथी भी पार नहीं कर सकता था और जगह जगह इसमें कट थे। जहां कट थे वहॉ पर सुरक्षा गार्ड तैनात कर के रखे गए थे । सुरक्षा गार्ड इस बात की निगरानी रखा करते थे कि कौन सा सामान इस परमिट लाइन से पार किया जा रहा है ।

उस समय देश में नमक का उत्पादन समुद्री पानी की बजाय राजस्थान और गुजरात की झीलों से हुआ करता था। यह नमक यहां से पूरे हिमालयी इलाको में जाता था। तिब्बत और नेपाल में भी इन्ही मार्गों का प्रयोग नमक को ले जाने के लिए किया जाता था। नेपाल में तो एक साल्ट रूट है जैसे सिकंदर के बाद सिल्क रूट खड़ा किया गया। वैसे ही नमक रूट भी है जो नेपाल के मुस्टांग इलाके से तिब्बत हो करके जाता था।इतिहास के पन्नों को अगर पलटें तो 1820 से लेकर 1880 तक परमिट लाइन वजूद में रही। उसके बाद नामक पर जो टैक्स था वो पूरे भारत मे सामान्य हो गया था फिर परमिट लाइन की जरूरत नही रही थी ।

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